बांस - एक कच्चा, खोखला, व्यर्थ नाम तुम्हारे लिए ।
बांसवारी में उगता, फिर बिकता भाव कौडियों के ।
देवदार, साल, शीशम से आँका जाता, वो बताते मुझको मेरी औकात ।
हरदम कम समझा जाता 'थोथा' मेरा नाम बजता ।
पर अब मान है होता इस थोथेपन पे मुझे ।
मैं थोथा बन्सू लोगो के देखो क्या काम आया ।
जब आई बाढ़ बिहार में , डूबे शहर बस्ती गाँव ।
बेघर हुए घर वाले, टूटे सपने, छूटे अपने, छुटे मुहँ के निवाले ।
फसलें, इंसां, मवेशी, पक्षी, समा गए सब जल थल में ।
कभी न देखा न सुना था ऐसा मंजर गज़ब का कहर ढा गई कोसी ।
जब लोग थे बेघर, हताश, आश्रयहीन, और व्याकुल
तो में थोथा बन्सू कटा और बना आश्रय उनके लिए ।
भूख से बिलखते मवेशियों को पाला मैंने पत्तों से अपने
मैं कटा, चीरा, मिटा लोगों के लिए ।
मुझसे बाँध, नौका, पलंग, मचान, और नीढ बने इंसानों के
अब भूतही, जीरवा - देवदार, साल, शीशम को उनकी औकात बताते हैं ।
महिमा मेरी देख देख सब विस्मित रह जाते हैं ।
और आज मैं जब बने घर, झूलते बाँध, चलते नौका, पलते मवेशी और इंसा पता हूँ ।
सच कहूँ तो खुशी से 'थोथा बन्सू' मैं झूम झूम इतराता हूँ ।
1 comment:
it is really a moving composition of words that discloses the keen observation of writer and his ability to express his emotions.
verse successfully describes the intensity of catastrophy as well.
well done Mr saini
vijay
london
U.K.
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