Saturday, October 11, 2008

बांस बोला

मैं हूँ बांस, बांस हूँ मैं ।
बांस - एक कच्चा, खोखला, व्यर्थ नाम तुम्हारे लिए ।
बांसवारी में उगता, फिर बिकता भाव कौडियों के ।
देवदार, साल, शीशम से आँका जाता, वो बताते मुझको मेरी औकात ।
हरदम कम समझा जाता 'थोथा' मेरा नाम बजता ।
पर अब मान है होता इस थोथेपन पे मुझे ।
मैं थोथा बन्सू लोगो के देखो क्या काम आया ।


जब आई बाढ़ बिहार में , डूबे शहर बस्ती गाँव ।
बेघर हुए घर वाले, टूटे सपने, छूटे अपने, छुटे मुहँ के निवाले ।
फसलें, इंसां, मवेशी, पक्षी, समा गए सब जल थल में ।
कभी न देखा न सुना था ऐसा मंजर गज़ब का कहर ढा गई कोसी ।
जब लोग थे बेघर, हताश, आश्रयहीन, और व्याकुल
तो में थोथा बन्सू कटा और बना आश्रय उनके लिए ।
भूख से बिलखते मवेशियों को पाला मैंने पत्तों से अपने
मैं कटा, चीरा, मिटा लोगों के लिए ।
मुझसे बाँध, नौका, पलंग, मचान, और नीढ बने इंसानों के
अब भूतही, जीरवा - देवदार, साल, शीशम को उनकी औकात बताते हैं ।
महिमा मेरी देख देख सब विस्मित रह जाते हैं ।
और आज मैं जब बने घर, झूलते बाँध, चलते नौका, पलते मवेशी और इंसा पता हूँ ।

सच कहूँ तो खुशी से 'थोथा बन्सू' मैं झूम झूम इतराता हूँ ।
अजय सैनी

This poem is written by Mr. Ajay Saini, M.A. (Previous) who went to Saharsa with Team 4 of DSW and worked there for 17 days